ऑपरेशन
सिंदूर : परमाणु छत्र के नीचे युद्ध और शांति
डॉ अमर सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
धर्म समाज महाविद्यालय
अलीगढ़
सारांश :
"ऑपरेशन सिंदूर" भारत की उस सामरिक सोच का प्रतीक है, जो परमाणु हथियारों की मौजूदगी के बावजूद सीमित युद्ध की संभावनाओं को
स्वीकारती है। यह शोधपत्र "ऑपरेशन सिंदूर" के
माध्यम से परमाणु छत्र के नीचे युद्ध और शांति की जटिलता का विश्लेषण करता है।
भारत और पाकिस्तान जैसे परमाणु संपन्न राष्ट्रों के बीच पारंपरिक सैन्य टकराव की
गुंजाइश कम नहीं हुई है, बल्कि आतंकवाद और सीमित अभियानों के
माध्यम से युद्ध की प्रकृति अधिक जटिल हो गई है।
यह अध्ययन इस बात की पड़ताल करता है कि कैसे "ऑपरेशन
सिंदूर" जैसे सैन्य अभियान भारत की "कोल्ड स्टार्ट डॉक्ट्रिन", "न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता", और पाकिस्तान की "फुल स्पेक्ट्रम डिटरेंस" नीति के संदर्भ में
भारत की रणनीतिक प्रतिक्रियाओं को दर्शाते हैं। अंततः, "ऑपरेशन सिंदूर" एक ऐसे प्रतिमान के रूप में उभरता है, जो परमाणु युद्ध की आशंका के बीच सीमित संघर्ष, क्षेत्रीय
स्थिरता, और शांति स्थापना की संभावनाओं की जटिलता को उजागर
करता है। यह अध्ययन नीति निर्माताओं और रक्षा विशेषज्ञों को यह सोचने पर विवश करता
है कि क्या परमाणु हथियार वास्तव में युद्ध को रोकते हैं या सिर्फ उसके स्वरूप को
बदलते हैं।
प्रस्तावना :
भारत द्वारा
आतंकवादी कार्रवाइयों को “युद्ध की कार्रवाई” (Act of War) मानते हुए दी गई प्रतिक्रिया, विशेष रूप से 22
अप्रैल 2025 को पहलगाम में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी कार्यवाही के विरुद्ध भारत
द्वारा 7, 8 और 9 मई 2025 को 'ऑपरेशन सिंदूर' के तहत किए
गए हमले, परमाणु क्षेत्र के नीचे (Sub-nuclear
threshold) पारंपरिक संघर्षों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभा सकते हैं। "परमाणु छत्र के नीचे युद्ध” (War
Under the Nuclear Umbrella) वाक्यांश समकालीन रणनीतिक अध्ययनों के
विरोधाभास का प्रतिनिधित्व करता है। यह परमाणु-सशस्त्र विरोधियों के बीच सीमित
पारंपरिक (Conventional Warfare) या उप-पारंपरिक सैन्य
अभियानों (Sub-Conventional Warfare) के संचालन को संदर्भित करता है, जो परमाणु
प्रतिशोध के जोखिम के कारण बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने का प्रयास करते हैं (Krepon
& Cohn, 2011)। परमाणु शक्तियों से सम्पन्न भारत और पाकिस्तान
के बीच स्थायी प्रतिद्वंद्विता दक्षिण एशिया में इस रणनीतिक गतिशीलता का उदाहरण
है। परमाणु शक्ति प्राप्ति के बाद के संघर्षों का उनका इतिहास, जैसे कि कारगिल युद्ध (1999), सर्जिकल स्ट्राइक (2016),
और बालाकोट हवाई हमले (2019) और अब ऑपरेशन
सिंदूर (2025) के अंतर्गत दोनों देशों के बीच संघर्ष, यह
दर्शाता है कि परमाणु वातावरण में भी कैसे सीमित युद्ध को संयम, कूटनीति और स्पष्ट सैन्य/राजनीतिक उद्देश्यों के साथ
प्रबंधित किया जा सकता है।
परमाणु छत्र (Nuclear
Umbrella ) की अवधारणा भयादोहन के सिद्धांत (Deterrence Theory)
में निहित है। परमाणु भयादोहन के अनुसार, विरोधियों
के पास परमाणु हथियारों का होना अस्वीकार्य विनाश के पारस्परिक खतरे के कारण
प्रत्यक्ष सैन्य टकराव को हतोत्साहित करता है। यह घटना, जिसे
पारस्परिक सुनिश्चित विनाश (MAD: Mutual Assured
Destruction) भी कहा जाता है, सैद्धांतिक रूप
से बड़े पैमाने पर युद्ध को रोकती है (Perkovich, 1999)।
हालाँकि, व्यवहार में, यह अक्सर एक अलग
तरह की अस्थिरता की ओर ले जाती है-रणनीतिक स्थिरता लेकिन सामरिक अस्थिरता (strategic
stability but tactical instability) (Ganguly & Kapur, 2010)।
इस स्थिति में, राज्य सीमित या छद्म युद्ध (Limited
or Proxy Wars) करने के लिए उत्साहित महसूस हो सकते हैं, यह मानते हुए कि प्रतिद्वंद्वी परमाणु युद्ध से बचने के लिए बड़े पैमाने
पर जवाबी कार्रवाई से परहेज करेगा (Tellis, 2001)। यह विशेष
रूप से दक्षिण एशिया में दिखाई देता है, जहाँ पाकिस्तान
अक्सर आतंकवाद और सीमा पार घुसपैठ जैसी सीमित या छद्म युद्ध रणनीति पर निर्भर रहा
है, जबकि भारत को अनियंत्रित युद्ध वृद्धि को ट्रिगर किए
बिना, प्रतिक्रिया की कसौटी पर खरा उतरना पड़ा है। परमाणु हथियारों के अस्तित्व ने
क्षेत्र में संघर्ष की प्रकृति को नया रूप दिया है, जिसने पारंपरिक
युद्ध से उप-पारंपरिक संघर्ष पर ध्यान केंद्रित किया है और सामरिक परमाणु हथियारों
(TNWs:
Tactical Nuclear Weapons) के खतरनाक आयाम को पेश किया है।
परमाणु छत्र के नीचे पारंपरिक युद्ध: पारंपरिक युद्ध (Conventional Warfare) पारंपरिक बलों- पैदल सेना, टैंक, विमान और नौसेना इकाइयों का उपयोग करके एक राज्य का दूसरे राज्य के
विरुद्ध सैन्य संघर्ष को संदर्भित करता है। भारत- पाकिस्तान दोनों देश परमाणु
शक्ति बनने से पहले तीन बड़े पारंपरिक युद्ध लड़ चुके हैं: 1947-48, 1965 और 1971 में । हालांकि 1998
के परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के मध्य युद्ध की प्रकृति बदल गई हैं।
परमाणुकरण के
बाद, पूर्ण पैमाने पर पारंपरिक युद्ध दुर्लभ हो गए
हैं। कारगिल संघर्ष परमाणु छत्र के नीचे
युद्ध का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। मई 1998 में भारत और पाकिस्तान दोनों द्वारा परमाणु परीक्षण किए जाने के बमुश्किल
एक साल बाद हुए इस संघर्ष की शुरुआत पाकिस्तान द्वारा जम्मू और कश्मीर के कारगिल
सेक्टर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के भारतीय हिस्से में नियमित सैनिकों और
आतंकवादियों की घुसपैठ से हुई थी। भारत ने रणनीतिक संयम पर आधारित एक सधा हुआ जवाब
दिया, जिसमें लगभग एक महीने
तक चले संघर्ष के बाद पाकिस्तान को पीछे हटने के लिए बाध्य होना पड़ा। कारगिल युद्ध
ने दिखाया कि परमाणु हथियार बड़े पैमाने पर युद्ध को रोकते हैं, लेकिन वे सीमित पारंपरिक संघर्ष को नहीं रोक सकते (Subrahmanyam,
1999)। भारत का सैन्य अभियान संयमित और स्थानीयकृत था
ताकि बड़े पैमाने पर युद्ध से बचा जा सके।
उप-पारंपरिक युद्ध (Sub - Conventional Warfare) : उप-पारंपरिक युद्ध, पारंपरिक युद्ध की सीमा से नीचे के संघर्ष को संदर्भित
करता है, जिसमें आतंकवाद, उग्रवाद,
साइबर हमले, तोड़फोड़ और प्रॉक्सी युद्ध शामिल
हैं।
•
दिसंबर 2001 में, भारतीय संसद पर
आतंकवादी हमला, जिसे पाकिस्तान-आधारित आतंकवादी समूह जैश-ए-मोहम्मद
द्वारा अंजाम दिया गया था, ने भारत और पाकिस्तान को युद्ध के
करीब ला दिया। भारत ने ऑपरेशन पराक्रम के रूप में सीमा पर लगभग 500,000 सैनिकों को जुटाकर जवाब दिया। हालांकि, बड़े पैमाने
पर सैन्य निर्माण के बावजूद, कोई वास्तविक युद्ध नहीं हुआ (Chari,
Cheema & Cohen, 2007)। इस गतिरोध ने परमाणु भयादोहन द्वारा लगाए गए
प्रतिबंधों को उजागर किया। अंतत: भारत ने अंतरराष्ट्रीय दबाव और कूटनीतिक
मध्यस्थता, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के दबाव में
करीब 10 महीने बाद अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। (Ladwig, 2007)।
•
ऑपरेशन पराक्रम
द्वारा उजागर की गई सीमाओं के जवाब में, भारत ने कोल्ड स्टार्ट सिद्धांत - एक ऐसी रणनीति जो उकसावे के जवाब में
पाकिस्तान की परमाणु लाल रेखाओं को पार किए बिना, पाकिस्तानी
क्षेत्र पर तेज, सीमित पारंपरिक हमलों की परिकल्पना करती है,
को प्रतिपादित किया। इसका मुकाबला करने के लिए, पाकिस्तान ने
सामरिक परमाणु हथियार (TNWs: Tactical
Nuclear Weapons) विकसित और तैनात किए। इस विकास ने परमाणु सीमा (Nuclear
Threshold) को जहाँ कम किया, वहीं पर पारंपरिक
झड़पों के परमाणु युद्ध में वृद्धि का खतरा बढ़ गया (Narang, 2014)।
•
सितंबर 2016 में
उरी आतंकवादी हमले ने भारत की रणनीति में एक नए चरण को चिह्नित किया। जिसंके
अंतर्गत पहली बार भारत ने नियंत्रण रेखा के पार आतंकवादी लॉन्च पैड पर सर्जिकल
स्ट्राइक की तथा रणनीतिक अस्पष्टता की पिछली नीति से हटकर इन्हें आधिकारिक तौर पर
स्वीकार और प्रचारित किया गया। इस ऑपरेशन को जानबूझकर सीमित किया गया था और
पाकिस्तानी लाल रेखाओं को पार करने से बचने के लिए सावधानीपूर्वक गणना की गई थी (Pant, 2016)। फरवरी 2019 में पुलवामा आत्मघाती बम
विस्फोट के बाद इसमें एक और महत्वपूर्ण वृद्धि हुई, जिसमें 1971
के युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय सीमा पार पहला हवाई हमला था। इस कार्यवाही में एक भारतीय
पायलट भी पाकिस्तान द्वारा पकड़ लिया गया। हालाँकि, दोनों देशों
ने जल्दी ही तनाव कम करने की दिशा में कदम बढ़ाए और पायलट को सद्भावना के तौर पर पाकिस्तान
द्वारा वापस कर दिया गया। इस घटना ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे परमाणु
प्रतिरोध संघर्ष की संभावना को पूरी तरह से खत्म नहीं करता है, साथ ही साथ यह दोनों पक्षों को तनाव को नियंत्रित करने के लिए भी प्रोत्साहित
करता है (Singh, 2020)।
•
22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर
के पहलगाम के बैसरन घाटी में हुए आतंकी हमले में लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े द
रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने 26 पर्यटको को मार दिया,
जिनमें 25 भारतीय और एक नेपाली नागरिक शामिल था
। यह घटना न केवल मानवता पर हमला थी, बल्कि भारत की आंतरिक
सुरक्षा पर भी सीधा प्रहार था (CNN – Pahalgam attack; 2025)।
इसके जवाब में 7 मई को भारत ने 'ऑपरेशन
सिंदूर' के तहत पाकिस्तान और पीओके में 9 आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले किए । पाकिस्तान ने भी भारतीय सीमा पर
गोलीबारी शुरू की और ड्रोन व मिसाइल हमलों की कोशिश की, जिन्हें
भारतीय वायु रक्षा प्रणाली ने नाकाम कर दिया। भारत ने जवाबी कार्यवाही करते हुए लाहौर
के पास पाकिस्तान के HQ-9 एयर डिफेंस सिस्टम को निष्प्रभावी
कर दिया। साथ ही साथ पाकिस्तान के रफीकी, मुरीद, चकलाला, सियालकोट और रहीम यार खान एयरबेस पर भी भारत
ने हमले किए (India Today, 2025)। 'ऑपरेशन
सिंदूर' पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के विरुद्ध एक निर्णायक
प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया, जो भारत की रणनीतिक सोच
में हुए परिवर्तन को दर्शाता है – विशेष रूप से परमाणु सीमा के भीतर रहते हुए प्रोएक्टिव
एस्केलेशन (Proactive Escalation) की नीति।
उपरोक्त उदाहरण
यह दर्शाते है की परमाणु हथियार पारंपरिक युद्ध को रोकते तो हैं, परंतु वे कम तीव्रता वाले आक्रमण के लिए भी जगह बनाते
हैं।
भारत का परमाणु सिद्धांत: भारत का परमाणु
सिद्धांत, जिसे 2003 में
सार्वजनिक रूप से जारी किया गया था, तीन प्राथमिक सिद्धांतों
द्वारा निर्देशित है:
•
नो फर्स्ट यूज : भारत परमाणु हथियारों
का उपयोग तब तक नहीं करेगा जब तक कि परमाणु हथियारों से लैस किसी विरोधी द्वारा
पहले हमला न किया जाए।
•
विश्वसनीय
न्यूनतम प्रतिरोध: भारत अपने
विरोधियों को रोकने के लिए आवश्यक परमाणु हथियारों का केवल न्यूनतम स्तर बनाए
रखेगा।
•
बड़े पैमाने पर
जवाबी कार्रवाई: अगर परमाणु
हथियारों से हमला किया जाता है, तो भारत अस्वीकार्य क्षति पहुँचाने के लिए डिज़ाइन किए गए बड़े पैमाने पर
दंडात्मक परमाणु हमले से जवाबी कार्रवाई करेगा।[1]
भारत की परमाणु मुद्रा युद्ध-लड़ाई नहीं, बल्कि निवारक-आधारित है। इसका सिद्धांत संयम, राजनीतिक नियंत्रण और रणनीतिक स्थिरता पर जोर देता है। यह रुख भारत को
परमाणु सीमा पार किए बिना आतंकवाद जैसे उप-पारंपरिक खतरों के लिए पारंपरिक सैन्य
प्रतिक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है। हालाँकि, पाकिस्तान के सामरिक परमाणु हथियारों और चीन के रणनीतिक आधुनिकीकरण के
बारे में बढ़ती चिंताओं ने भारत में घरेलू बहस को जन्म दिया है कि “नो फर्स्ट यूज नीति में संशोधन की आवश्यकता है।
पाकिस्तान का परमाणु सिद्धांत: भारत के विपरीत, पाकिस्तान ने औपचारिक रूप से परमाणु सिद्धांत जारी नहीं किया है, लेकिन इसके बयान और सैन्य व्यवहार निम्नलिखित नीति का संकेत देते हैं:
•
पहला उपयोग: पाकिस्तान नो फर्स्ट यूज का पालन नहीं करता है। यह पहले
परमाणु हथियारों का उपयोग करने का अधिकार सुरक्षित रखता है, विशेष रूप से पारंपरिक हमले के जवाब में।
•
पूर्ण-स्पेक्ट्रम
प्रतिरोध: पाकिस्तान संघर्ष के सभी स्तरों पर
खतरों को रोकने के लिए रणनीतिक, परिचालन और सामरिक परमाणु हथियारों सहित परमाणु क्षमताओं की एक विस्तृत
श्रृंखला रखता है।[2]
पाकिस्तान के सिद्धांत का उद्देश्य भारत को अपने बेहतर पारंपरिक सैन्य
बल का उपयोग करने से रोकना है। भारत के कोल्ड स्टार्ट सिद्धांत को नाकाम करने के
लिए पाकिस्तान ने संकट के समय प्रतिक्रिया देने के लिए सामरिक परमाणु हथियारों का
प्रयोजन किया। इससे एक भयादोहन विरोधाभास पैदा होता है: जहाँ पर पाकिस्तान परमाणु
उपयोग की धमकी देकर पारंपरिक युद्ध को रोकने की उम्मीद करता है, हालांकि टीएनडब्लू की तैनाती से गलत अनुमान और
आकस्मिक वृद्धि का जोखिम बढ़ जाता है।
सामरिक परमाणु हथियार : सामरिक परमाणु हथियार (Tactical Nuclear Weapons) कम क्षमता वाले परमाणु हथियार होते हैं, जो युद्ध के मैदान में सीमित और लक्षित उपयोग के लिए डिज़ाइन किए गए
हैं। ये रणनीतिक परमाणु हथियारों से
भिन्न हैं, जो शहरों या
महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को नष्ट करने के लिए हैं। पाकिस्तान ने भारत के कोल्ड
स्टार्ट सिद्धांत के जवाब में सामरिक परमाणु हथियारों, जैसे नस्र मिसाइल (60-120 किमी रेंज, 0.5-5 किलोटन), को अपनी रक्षा नीति का हिस्सा बनाया है।[3]
इन हथियारों का उद्देश्य प्रारंभिक और स्थानीय परमाणु उपयोग की धमकी देकर सीमित
पारंपरिक घुसपैठ को रोकना है। हालांकि, सामरिक परमाणु हथियार गंभीर खतरे पैदा करते हैं:
•
कमान और
नियंत्रण मुद्दे: युद्ध के
मैदान में, विकेंद्रीकृत
नियंत्रण अनधिकृत या आकस्मिक उपयोग के जोखिम को बढ़ाता है।
•
वृद्धि दुविधा: एक भी परमाणु उपयोग - सामरिक या रणनीतिक - अप्रत्याशित, पूर्ण पैमाने पर जवाबी कार्रवाई की ओर ले जा सकता है।
•
परमाणु सीमा का
धुंधला होना: टीएनडब्लू
परमाणु उपयोग के लिए सीमा को कम करते हैं, जिससे संकट के समय परमाणु युद्ध की संभावना अधिक हो जाती है।[4]
इस संदर्भ में भारत
ने बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई के सिद्धांत के साथ चेतावनी दी है कि सामरिक
परमाणु हथियार सहित परमाणु हथियारों का कोई भी उपयोग पूर्ण पैमाने पर रणनीतिक
प्रतिक्रिया को आमंत्रित करेगा। इसका उद्देश्य पाकिस्तान को सामरिक परमाणु हथियार का
उपयोग करने से रोकना है।
सैद्धांतिक विचलन और रणनीतिक स्थिरता : भारत की नो
फर्स्ट यूज नीति और पाकिस्तान की पहले उपयोग की मुद्रा के बीच विषमता
दक्षिण एशिया में रणनीतिक स्थिरता को जटिल बनाती है:
•
भारत परमाणु
हथियारों को युद्ध-लड़ने के उपकरण के रूप में नहीं, बल्कि राजनीतिक निवारक के रूप में देखता है (Sagan, 2001)।
•
पाकिस्तान परमाणु
हथियारों को अपनी रक्षा रणनीति में एकीकृत मानता है, जो पारंपरिक खतरों को रोकने के लिए आवश्यक है।
इससे संकट के दौरान सैद्धांतिक भिन्नता के कारण गलत धारणा और गलत आकलन
का जोखिम बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान भारत के पारंपरिक हमले को बड़े पैमाने पर होने वाले हमले के
अग्रदूत के रूप में गलत समझ सकता है और समय से पहले जवाब दे सकता है। रणनीतिक
स्थिरता के लिए पारदर्शिता, संचार और संकट प्रबंधन तंत्र की
आवश्यकता होती है। हॉटलाइन और परमाणु जोखिम-घटाने के समझौते जैसे कुछ सीबीएम
(विश्वास निर्माण उपाय) मौजूद हैं, लेकिन संकट के दौरान
अक्सर उनका कम उपयोग किया जाता है या उन्हें अनदेखा कर दिया जाता है।(Ganguly
& Kapur, 2010)।
भारत-पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार पारंपरिक युद्ध, उप-पारंपरिक संघर्ष और सामरिक परमाणु खतरों के बीच एक
खतरनाक रणनीतिक त्रिकोण बनाती है। रणनीतिक संयम और एनएफयू ( No First Use )पर आधारित भारत का दृष्टिकोण, वृद्धि को आमंत्रित
किए बिना निवारण बनाए रखना चाहता है। वहीं पर पाकिस्तान ने अपनी कमज़ोर पारंपरिक
स्थिति के दबाव में, बराबरी बनाए रखने के लिए ज़्यादा
आक्रामक परमाणु रुख़ अपनाया है। इससे दक्षिण एशिया में एक जटिल निवारक माहौल बनता
है, जहाँ एक बड़े युद्ध की संभावना नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है।
हालाँकि, जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद के प्रोफ़ेसर हैप्पी मून जैकब के
अनुसार, भारत को पाकिस्तान द्वारा पारंपरिक लड़ाई में अच्छा
प्रदर्शन करने के बारे में बहुत ज़्यादा चिंतित नहीं होना चाहिए। काफ़ी समय तक,
पाकिस्तान का उद्देश्य भारत को उप-पारंपरिक संघर्ष (आतंकवादी) के जवाब में पारंपरिक युद्ध का उपयोग करने से रोकने के
लिए अपने पूर्ण स्पेक्ट्रम निवारक/ सामरिक परमाणु हथियार आदि का इस्तेमाल करना था।
यदि ऐसा है, तो पाकिस्तान की
पारंपरिक सेनाएँ जितना बेहतर प्रदर्शन करेंगी, उतनी ही परमाणु
सीमा के भीतर दिल्ली के लिए आतंकवादी हमलों के जवाब में पारंपरिक युद्ध विकल्प का
उपयोग करने के लिए अधिक जगह बनेगी। बस भारत का उद्देश्य पाकिस्तान को यह विश्वास
दिलाना है कि आतंकवादी हमलों को दंडित किए बिना नहीं छोड़ा जाएगा। यह संभव है कि
पाकिस्तान इसका जवाब देगा, यंहा पर 2 बातें ध्यान देने योग्य
हैं:
•
पाकिस्तान की
प्रतिक्रिया पारंपरिक युद्ध होगी।
•
पाकिस्तान कितनी
बार उप-पारंपरिक संघर्ष के तरीकों का इस्तेमाल करना चाहेगा, जिसके बारे में उसे पता है कि भारत की ओर से निश्चित
रूप से पारंपरिक युद्ध के रूप में प्रतिक्रिया मिलेगी?
इसलिए, यह भारतीय पारंपरिक युद्ध
की प्रतिक्रिया की निश्चितता है जो अंततः पाकिस्तान को उप-पारंपरिक संघर्ष (
आतंकवाद ) के उपायों के उपयोग से रोकेगी। बेशक, इसे एक नया
सामान्य बनने के लिए इस प्रक्रिया की पुनरावृत्तियों की आवश्यकता होगी। उपरोक्त
विश्लेषण के संदर्भ में “ऑपरेशन सिन्दूर” जैसी प्रतिक्रिया परमाणु क्षेत्र के नीचे
संघर्ष को नियंत्रित करने में प्रभावी हो सकती हैं । इसका निम्नलिखित प्रभाव देखा
जा सकता हैं:
·
भारत ने अब पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के कृत्य (Act of Terrorism) को आधिकारिक रूप से युद्ध का कार्य (Act of War) घोषित
किया है। यह एक रणनीतिक विकल्प है — जिसके द्वारा भारत ने अपने जवाब की प्रकृति और
सीमा को लचीला रख सके।
·
उप-परंपरागत खतरों (sub-conventional threats) के प्रति
भारत एक ऐसी रणनीति अपना रहा है, जिसका उद्देश्य है कि प्रत्येक उकसावे के साथ
प्रतिक्रिया की लागत, दायरा और तीव्रता को क्रमिक रूप से
बढ़ाया जाए। यह रणनीति दोहरे उद्देश्य की पूर्ति करती है: एक ओर यह प्रतिद्वंद्वी
को आगे बढ़ने से हतोत्साहित करती है, वहीं दूसरी ओर परमाणु
सीमा से नीचे रहकर नियंत्रण बनाए रखती है।
- पाकिस्तान
को लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे समूहों पर लगाम कसनी पड़ सकती है, क्योंकि भविष्य मे कोई भी
आतंकवादी घटना भारत की कठोर प्रतिक्रिया को आमंत्रित कर सकती हैं ।
- भारत की
तकनीकी श्रेष्ठता (ड्रोन, फाइटर जेट्स, S-400) पाकिस्तान को अपनी रक्षा
प्रणालियों को अपग्रेड करने के लिए मजबूर कर सकती है, जो
आर्थिक संकट के बीच चुनौतीपूर्ण होगा।
- सैन्य
असफलताएँ, शस्त्र दौड़ और आर्थिक संकट, पाकिस्तान में सामाजिक अस्थिरता का बढ़ाएगा । इससे बलूचिस्तान
और खैबर पख्तूनख्वा में चल रही बगावत तेज हो सकती है।
10 मई 2025 के संघर्ष विराम ने
तनाव को अस्थायी रूप से रोका हैं। भारत की यह रणनीति पाकिस्तान को आतंकवाद
प्रायोजन की नीति छोड़ने और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए रचनात्मक कदम उठाने के लिए
दबाव डाल सकती है।
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